नागा साधुओं का जीवन परिचय Biography of Naga Sadhu
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नागा साधुओं का जीवन परिचय Biography of Naga Sadhu |
नागा साधुओं को नहीं दी जाती मुखाग्नि क्यू कि वे पहले ही पिंडदान कर चुके होते है,
संन्यासी का ये से होता है अंतिम संस्कार नागा साधु जीवित रहते ही खुद अपना पिंडदान और अंतिम संस्कार कर चुके होते हैं, ऐसे में उनकी अंतिम संस्कार को लेकर भी कई सवाल होते आए हैं. हिन्दू धर्म के मुताबिक जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों का पालन किया जाता है और इनमें अंतिम संस्कार भी प्रमुख है.
प्रयागराज के महाकुंभ 2025 में आस्था का मेला लग चुका है और रोज करोड़ों की तादाद में श्रद्धालु आस्था के संगम में डुबकी लगा रहे हैं. सबसे पहले मंगलवार को अखाड़ों ने अमृत स्नान में हिस्सा लिया और इसके बाद साधु संतों से लेकर आमजन संगम में पवित्र स्नान कर चुके हैं.
महाकुंभ में नागा साधुओं का भी जमावड़ा देखा गया है और पेशवाई से लेकर पवित्र स्नान में नागा साधु बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.
नागा साधुओं के बारे में एक रहस्य यह भी है कि आखिर मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार कैसे किया जाता है,
लेकिन नागा साधु तो खुद ही अपना पिंड दान कर चुके होते हैं तो उनका अंतिम संस्कार कैसे होता है, चलिए आपको बताते हैं.
जूना अखाड़ा के कोतवाल अखंडानंद महाराज बताते हैं कि मृत्यु के बाद नागा साधु की समाधि लगाई जाती है. वह चाहे जल समाधि हो या फिर भू-समाधि, उनका दाह संस्कार नहीं किया जाता.
अखंडानंद महाराज ने बताया कि नागा की चिता को आग नहीं दी जाती और ऐसा करने पर बहुत दोष लगता है. इसकी वजह बताते हुए महाराज ने कहा कि नागा साधु पहले ही अपने जीवन को नष्ट कर चुका होता है और पिंडदान कर चुका होता है, तब जाकर ही वह नागा साधु बन पाता है.
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नागा साधु भू-समाधी नी |
भू-समाधि और जल समाधि की परंपरा अखंडानंद महाराज ने बताया कि आम व्यक्ति से अलग नागा साधु बनने के बाद अंतिम संस्कार में पिंडदान और दाह संस्कार की प्रक्रिया लागू नहीं होती.
इसी वजह से नागा को अग्नि को समर्पित न करके, जल या फिर भू-समाधि दी जाती है.
संन्यासी स्वामी हर प्रसाद ने बताया कि नागा साधु जीवित रहते ही अपना तन और मन परमात्मा को समर्पित कर चुका होता है. साथ ही पिंडदान कर चुके होते हैं, ऐसे में उनके शव को अग्नि नहीं दी जाती है.
पहले नागा साधुओं को जल समाधि देने का चलन था. लेकिन नदियों के प्रदूषण को कम करने के मकसद से अब जल समाधि की जगह नागाओं को सिद्ध योग मुद्रा में बैठाकर भू समाधि दी जाती है.
इसकी वजह है कि भू समाधि पाकर नागा को मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा जाते हैं.
इस समाधि से पहले हिन्दू धर्म के अनुसार उनके शव को स्नान कराया जाता है और फिर मंत्रोच्चण के साथ भू- समाधि दे दी जाती है.
मृत्यु के बाद नागा साधु के शव पर भगवा वस्त्र डाले जाते हैं और भस्म लगाया जाता है जो उनकी आध्यात्मिक साधना का प्रतीक है. उनके मुंह में गंगाजल और तुलसी की पत्तियां भी रखी जाती हैं.
इसके बाद ही भू-समाधि दी जाती है, साथ ही उस समाधि स्थल पर एक सनातनी निशान बना दिया जाता है ताकि कोई उस जगह को गंदा न कर सके.
नागा साधुओं को धर्म रक्षक भी माना गया है, यही वजह है कि एक योद्धा की तरह पूरे मान-सम्मान के साथ उनको अंतिम विदाई दी जाती है.
नागा साधुओं की भू समाधि के दौरान एक गड्डा खोदा जाता, मृत संत के पद के मुताबिक उस गड्ढे की गहराई और आकार तय होता है.
इसके बाद मंत्रों के उच्चारण और पूजा-पाठ के साथ नागा को बैठाकर मिट्टी से ढक दिया जाता है. अगर नागा साधु जल समाधि की आखिरी इच्छा जाहिर करके जाता है तो उसे किसी पवित्र नदी में समर्पित भी किया जा सकता है. कई बार अखाड़े की परंपरा के अनुसार भी नागा साधु का अंतिम संस्कार किया जाता है.
नागा परंपरा के अनुसार मान्यता है कि उनका शरीर पंच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर बना है और मृत्यु के बाद इन ही तत्वों को शरीर समाहित किया जाना चाहिए. ऐसे में नागा साधुओं की मृत्यु के बाद उन्हें भू समाधि या जल समाधि देने की परंपरा है.
नागा साधु का जीवन बेहद रहस्यमयी होता है और इसका मुख्य कारण है उनका दुनिया से कटकर जीना। वे सारे भौतिक सुख छोड़कर एकांत में अपना जीवन जीते हैं लेकिन जब भी महाकुम्भ या कुम्भ का आयोजन होता है, ये साधु अपना एकांत जीवन छोड़कर उसमें डुबकी लगाने अवश्य आते हैं। पर लाखों की तादाद में आये ये साधु आखिर उसके बाद कहाँ चले जाते हैं,
चलिए जानते हैं..
हाइलाइट्स
- कुंभ मेले में नागा साधु सनातन धर्म की तपस्वी परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं और वे विशेष रूप से इस आयोजन के दौरान ही दिखाई देते हैं।
- कुंभ मेले में नागा साधुओं को स्नान का पहला अधिकार दिया जाता है, जिसके बाद अन्य श्रद्धालुओं को स्नान करने की अनुमति मिलती है।
- नागा साधुओं की दीक्षा और वर्गीकरण प्रमुख कुंभ आयोजनों में होता है, जैसे प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में।
- कई नागा साधु धार्मिक यात्राओं के दौरान विभिन्न तीर्थ स्थलों और मंदिरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, जबकि कुछ साधु सामान्य समाज से कटे हुए जीवन व्यतीत करते हैं।
कुंभ मेले में हर वो व्यक्ति उपस्थित होने की कोशिश करता है, जो धार्मिक लाभ पाना चाहता है। वैसे भी कुंभ का आयोजन 12 साल पर होता है।
कुम्भ के दौरान नागा साधु, जो सनातन धर्म की एक विशिष्ट और अत्यंत तपस्वी परंपरा का हिस्सा हैं, ओ बड़ी संख्या में उपस्थित होते हैं। वे कुंभ के प्रमुख आकर्षण और आध्यात्मिक आयोजन का केंद्र होते हैं।
नागा साधुओं के रहस्यमयी जीवन के कारण उन्हें सामाजिक तौर पर सिर्फ कुंभ में ही देखा जा सकता है। वो कुंभ मेले में कैसे आते हैं और वहाँ से कैसे जातें, ये एक रहस्य जैसा है क्योंकि किसी ने कभी उन्हें सार्वजनिक रूप से आते-जाते नहीं देखा। लाखों की तादाद में ये नागा साधु बिना कोई वाहन या पब्लिक गाड़ी का इस्तेमाल किये और लोगों को नजर आये कुम्भ तक पहुँच जाते हैं।
ऐसे मान्यता है कि वे हिमालय में रहते हैं और कुंभ मेला एकमात्र ऐसा समय है जब ये आम लोगों के बीच दिखाई देते हैं। कुंभ में दो सबसे बड़े नागा अखाड़े महापरिनिर्वाणी अखाड़ा और पंचदशनाम जूना अखाड़ा हैं, जो वाराणसी में है। ज्यादातर नागा साधु यहां से भी आते हैं।
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नागा साधुओं का जीवन परिचय Biography of Naga Sadhu |
अक्सर नागा साधु त्रिशूल धारण करते हैं और अपने शरीर को राख से ढकते हैं। वे रुद्राक्ष की माला और जानवरों की खाल जैसे पारंपरिक परिधान भी पहनते हैं।
चलिए जानते हैं ओर कुच्छ बाते..
- अपने मठ (आखाड़ों) में
कुंभ मेले के दौरान, नागा साधु अपने आखाड़ों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुंभ के बाद, वे अपने-अपने आखाड़ों में लौट जाते हैं। आखाड़े भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित होते हैं और ये साधुओं वहां ध्यान, साधना और धार्मिक शिक्षाओं का अभ्यास करते हैं।
- गुप्त और एकांत साधना
नागा साधु अपनी तपस्वी जीवन शैली के लिए जाने जाते हैं। कुंभ के बाद कई नागा साधु हिमालय, जंगलों या अन्य शांत और एकांत स्थलों में जाकर साधना और तप करते हैं। वे कठिन तपस्याओं और ध्यान में समय बिताते हैं, जिसे उनकी आत्मा और साधना की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। वे सार्वजनिक रूप से तभी आते हैं, जब कुंभ मेला या अन्य धार्मिक आयोजन होते हैं।
- तीर्थ स्थानों पर निवास
कुछ नागा साधु प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों, जैसे काशी (वाराणसी), हरिद्वार, ऋषिकेश, उज्जैन या प्रयागराज में निवास करते हैं। ये स्थान उनके लिए धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र होते हैं। वैसे भी नागा बनने के लिए या नए नागाओं की दीक्षा प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन के कुंभ में ही होती है। यहीं नाजाओं का वर्गीकरण भी होता है, जैसे कि प्रयाग में दीक्षा पाने वाले नागा को राजराजेश्वर, उज्जैन में दीक्षा पाने वाले को खूनी नागा, हरिद्वार में दीक्षा पाने वाले को बर्फानी नागा और नासिक में दीक्षा पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है।
- आइए आपको नागा साधु से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें बताते हैं.
आमतौर पर साधु-संत लाल, पीला या केसरिया रंग के कपड़ों में नजर आते हैं, लेकिन नागा साधु कभी कपड़े नहीं पहनते हैं.
क्या आपने कभी सोचा है कि नागा साधु कपड़ें क्यों नहीं पहनते हैं और इतनी कड़ाके की सर्दी में भी नागा साधु को ठंड क्यों नहीं लगती है? अक्सर लोग इस सवाल का जवाब जानना चाहते हैं कि कपकंपाती ठंड में नागा साधु बिना कपड़े खुद को गर्म कैसे रखते हैं. अगर आप भी इन सवालों का जवाब जानना चाहते हैं, तो यह आर्टिकल आपके बहुत काम आएगा.
- नागा साधु कौन होते हैं?
भारी संख्या में महाकुंभ मेले में शामिल होने वाला नागा साधु कपड़े नहीं पहनते हैं और कपकपाती ठंड़ में भी हमेशा नग्न ही रहते हैं. नागा साधु अपने शरीर पर धुनी या भस्म लपेटकर रहते हैं. नागा का अर्थ होता है 'नग्न'. नागा साधु आजीवन नग्न ही रहते हैं और वे खुद को भगवान का दूत भी मानते हैं.
- नागा साधु किसकी पूजा करते हैं?
नागा साधु वो होते हैं जो सांसारिक जीवन त्यागक भगवान शिव की भक्ति में लीन हो जाते हैं. नागा साधु पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और सांसारिक सुखों से दूर हो जाते हैं. नागा साधु शिवजी के नाम पर तपस्या करते हैं और योग ध्यान में लीन रहते हैं.
- नागा साधु के रहस्य
नागा साधुओं का मानना है कि व्यक्ति निर्वस्त्र दुनिया में आता है और यह अवस्था प्राकृतिक है, इसलिए नागा साधु जीवन में कभी भी कपड़े नहीं पहनते हैं और निर्वस्त्र रहते हैं.किसी व्यक्ति को नागा साधु बनने में 12 साल का समय लगता है. नागा पंथ में शामिल होने के लिए नागा साधु के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी होना बेहद आवश्यक माना जाता है. कुंभ में अंतिम प्रण लेने के बाद लंगोट का त्याग कर दिया जाता है, जिसके बाद वे हमेशा निर्वस्त्र रहते हैं.
नागा साधु दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं और वे भोजन भी भिक्षा मांग करते हैं. नागा साधु को दिन में 7 घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत है. अगर उन्हें किसी दिन इन 7 घरों से भिक्षा नहीं मिलती है, तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है.
नागा साधु ठंड से बचने के लिए तीन प्रकार के योग करते हैं. साथ ही, नागा साधु अपने विचारों और खानपान पर भी संयम रखते हैं. कठोर तपस्या, सात्विक आहार, नाड़ी शोधन और अग्नि साधना करने के कारण नागा साधुओं को ठंड नहीं लगती है.
नागा साधुओं का कोई विशेष स्थान या घर भी नहीं होता है. ये कहीं भी कुटिया बनाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं. सोने के लिए भी नागा साधु किसी बिस्तर का इस्तेमाल नहीं करते हैं, बल्कि हमेशा जमीन पर सोते हैं.
नागा साधु तीर्थयात्रियों द्वारा दिए जाने वाला भोजन ही ग्रहण करते हैं. इनके लिए दैनिक भोजन का कोई महत्व नहीं होता है और न ही अन्य किसी सांसारिक चीज का महत्व होता है. नागा साधु केवल सात्विक और शाकाहारी भोजन ही खाते हैं.
भोलेनाथ की भक्ति में लीन रहते हुए नागा साधु 17 श्रृंगार करने में विश्वास रखते हैं, जिनमें भभूत, चंदन, रुद्राक्ष माला, डूल माला, डमरू, चिमटा और पैरों में कड़े आदि शामिल हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, नागा साधु के 17 श्रृंगार शिवभक्ति का प्रतीक है.
12 सालों में लगने वाला महाकुंभ हिंदू धर्म में बहुत महत्व रखता है. देश-विदेश से करोड़ों लोग महाकुंभ में शामिल होने के लिए आते हैं. इस महाकुंभ की भव्य शुरुआत प्रयागराज में पौष पूर्णिमा से हुई.
इसका समापन महाशिवरात्रि के दिन यानी 26 फरवरी 2025 को होगा. इस दौरान करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं. महाकुंभ में सभी साधु संत और आमजन शामिल होते हैं, लेकिन नागा साधु हमेशा से ही कुंभ मेले में आकर्षण का केंद्र बने रहे हैं.
हिंदू धर्म के सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण पर्व में से एक महाकुंभ. महाकुंभ बहुत दुर्लभ आयोजन है, जो 12 पूर्ण कुंभ यानी 144 वर्षों के बाद एक बार आता है.
8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने अखाड़ा प्रणाली की स्थापना की. इस प्रणाली के तहत सनातन धर्म की रक्षा के उद्देश्य से शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण साधुओं का एक संगठन बनाया गया. इन साधुओं को "धर्म रक्षक" या "नागा साधु" कहा जाता था.
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